"जिसका प्रकार प्राण के बगैर शरीर निर्जीव है, उसी प्रकार धर्म, अध्यात्म, आस्था, भक्ति, योग व तत्वज्ञान के बगैर यह जगत अस्तित्वहीन है"
मौजूदा दौर में विश्व भर में मानव के पग सत्य की विपरीत दिशा में काफी आगे बड़े हैं, इसके घातक परिणाम सामने आ रहे हैं... ऐसे में बिना विलंब किए हुए सत्य के मार्ग पर पुनः लौटना अत्यंत आवश्यक है.. सत्य का बोध एवं सत्य के मार्ग की ओर अग्रसर करने वाला एकमात्र साधन अध्यात्म है...
हमारे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन क्या है, हमारा इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है इस बात की अनुभूती ही अध्यात्मिक व्यवहार और इश्वर को अनुभव करने का मार्ग है.
हमारी भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही ऋषि, मुनियों, आचार्य व महान संतों ने सदैव इस बात का समर्थन किया की ... इस सत्य का ज्ञान अध्यात्म से होकर ही गुजरता है. जीवन के वास्तविक ज्ञान की अनुभूति हेतु ऋषि मुनियों ने विभिन्न मार्ग बताएं जिनमें प्रमुख हैं योग, ध्यान, जप हवन, यज्ञ, प्रार्थना इत्यादि....
योग माध्यम हैं परमात्मा से जुड़ने... योग मैं भी चार मार्ग हैं...
प्रथम ज्ञान योग.... ज्ञान योग से अर्थ उस ज्ञान-मार्ग से है, जिसके द्वारा अविद्या का नाश होकर शुद्ध आत्म-सत्ता का बोध होता है.
आत्मा का शुद्ध चेतन स्वरूप इस शरीर में अविद्या आदि आवरण से ढँका रहता है और चिन्तन करते-करते इस आवरण को हटाकर उस शुद्ध स्वरूप को जान लेना ही ज्ञान योग का साधन है।
| |इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
अर्थात् इन्द्रियाँ स्थूल से परे हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से भी परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी परे है, वह (सः) आत्मा है।
दूसरा है भक्ति योग -भक्ति योग प्रतीक है प्रेम, त्याग, समर्पण, सेवा...तथा ईश्वर के प्रति समर्पण की तीव्र भावना ही भक्ति है जो हमें परमात्मा तक ले जाकर हमारी मुक्ति का मार्ग प्रसस्त करती हैं .गीता मैं भगवान ने कहाँ....
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।2।।
श्री भगवान बोलेः मुझमें मन को एकाग्र करके निरन्तर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं।(2)
अगला मार्ग हैं कर्म योग... निस्वार्थ भाव से किया गया कार्य तथा अपने कर्म को ईश्वर को समर्पित करना व फल की इच्छा ना रखना ही कर्मयोग है....
||कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकमज़्णि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)
योग मैं चतुर्थ मार्ग हैं राज योग.... ध्यान व धारणा के माध्यम से अपने मन विचारों, कर्मों को नियंत्रित करना तथा उत्तम संस्कारों का निर्माण करते हुए व स्वयं को जानने तथा स्वयं की शक्तियों का बोध होना राजयोग है.
पतंजलि सूत्र मैं वर्णित है... "योग चित्र वृत्ति निरोधा:"..
अध्यात्म की ओर बढ़ने हेतु सनातन ने जो अगला मार्ग प्रशस्त किया वह ' ध्यान'हैं ...ध्यान का अर्थ है किसी एक विषय पर धारणा करके उसमें मन को एकाग्र करना है. मानसिक शांति, एकाग्रता, दृढ़ निश्चय, ईश्वर का अनुसंधान, मन को निर्विचार कर मन पर काबू पाने जैसे उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु ध्यान कारगर है. गीता के छठे अध्याय में ध्यान को विस्तार से वर्णन किया गया है...
||शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।
अर्थात शनै शनै धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।।
हमारे ऋषि-मुनियों वेदों और शास्त्रों ने जो अगला मार्ग दिखाया वहां है जप, मंत्र.. मन को शांत व परमात्मा को जानने मार्ग जप है. मंत्रों के उच्चारण का महत्व सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही रहा. शास्त्रों मैं इसे इस प्रकार परिभाषित किया गया है... ऐसी ध्वनि जो मन को मानसिक शांति दे व मन को शांत करें 'मंत्र' कही गई.
|| मनः तरयति इति मंत्र || अर्थात मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है.
सनातन धर्म मंत्रों का जाप हजारों वर्षो से चला आ रहा है. ऋग्वेद के तीसरे मंडल में गायत्री मंत्र का उल्लेख है... गायत्री मंत्र के महत्व को सभी ने स्वीकारा..
||ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।|'
गायत्री मंत्र ऐसी कंपनी उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य के साथ-साथ संपूर्ण प्राणी जगत भी इससे लाभान्वित होते हैं. ऋग्वेद में वर्णित मृत्युंजय मंत्र को भी मृत्यु को जीतने वाला कहा गया है. इसके साथ ही वेदों और शास्त्रों में वर्णित ऐसे कई मंत्र है जिससे हमारी शारीरिक व मानसिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. शब्दों की ध्वनि वातावरण में कंपन उत्पन्न कर सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती है.
इसी कड़ी में अगला मार्ग है प्रार्थना..प्राथना से तात्पर्य ईश्वर से किसी वस्तु के लिए तीव्र उत्कंठा से किया गया निवेदन है. प्राथना मैं आदर, प्रेम, निवेदन एवं विश्वास समाहित है. प्राथना में ईश्वर को कर्ता मानने से तात्पर्य हैं कि हमारा अंतर्मन यहां स्वीकारता हैं, ईश्वर हमारी सहायता कर रहे हैं. भक्ति के आध्यात्मिक पद पर अग्रसर हेतु प्रार्थना साधना का एक महत्वपूर्ण साधन है.
ऋषि-मुनियों ने यज्ञ हवन को भी प्रमुख साधन माना आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढ़ने का. यह एक प्रकार का विज्ञान है यज्ञ की प्रक्रिया के दौरान ब्रह्मांड की समस्त शक्तियां का आवाहन कर मंत्र उच्चारण के साथ उत्पन्न हुए विशेष प्रकार की ध्वनि तरंगों का प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति, सूक्ष्म जगत व प्राणियों के स्थूल व सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है,तथा ये शक्ति व ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतः करण को शारीरिक एवं शुद्ध बनाती है...
||येन अमृतेन इदं भूतं भुवनं भविष्यत् सर्वं परिगृहीतं येन सप्तहोता यज्ञः तायते तत् मनः मे शिवसंकल्पं अस्तु ।|
अंततः इन आध्यात्मिक मार्गों को अपनाते हुए मनुष्य ना सिर्फ अपने जीवन में सुधार लाकर परम ज्ञान व परमात्मा की अनुभूति करेगा वरन व स्वयं को माध्यम बनाकर एक बेहतर परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व व समष्टि के कल्याण में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है.....
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